श्री कुलन्दई आनंद स्वामिगल - मदुरई
मदुरै की व्यस्त सड़कों में एक कोने में दूर इस महान संत की जीव समाधी है। यह वी.वी. काम्प्लेक्स , (सिग्नल के निकट ) कलवसल , मदुरै के पास स्थित है । इस संत को काशी के प्रसिद्ध त्रिलंग स्वामी का अवतार माना जाता है । वे 1627 में पैदा और साल 1932 में महा समाधि प्राप्त की है।
इस छोटे से पर तक शक्तिशाली के शीर्ष पर एक शिव लिंग के साथ संत की समाधि है। श्री चक्र मेरु भी पास में स्थापित कर दिया गया है।जिसकी पूजा स्वयं वे करते थे । इस संत की महानता के अनगिनत किस्से हैं। वे मिनाक्षी मंदिर के अंदर ही पले बढे। मदुरै के भक्तों को इस जगह के बारे में पता नहीं यह आश्चर्य की बात है ।
मंदिर
इस समाधि को तिरुवन्नामलाई के सद्गुरु शेषाद्रि स्वामिगल के द्वारा पवित्र किया गया था। ध्यान में रुचि रखने वाले या शांति की अपेक्षा करने वालो को इस मंदिर का दौरा करना चाहिए । इनके जीवन की कहानी को तमिल फिल्म ' श्री कांची कामाक्षी " में दिखाया गया है। उन्होंने मदुरै में जयवीर आंजनेय मंदिर की स्थापना की।
श्री कुलन्दई आनंद स्वामिगल समाधी मंदिर |
श्री कुलन्दई आनंद स्वामिगल - मदुरई
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जीवन इतिहास:
इन्हे देवी मीनाक्षी के बेटे के रूप में माना जाता है । उनके माता-पिता (श्री अन्नास्वामी और श्रीमती त्रिपुरसुंदरी) मदुरै के पास समयनाल्लुर में रहते थे। उन्होंने बच्चे के आशीर्वाद के लिए मदुरै के मीनाक्षी देवी से प्रार्थना की थी। देवी ने जुड़वा बच्चों के साथ उन्हें आशीर्वाद दिया। उनके स्वप्न में देवी ने कहा की बड़े बच्चे के शरीर पर दिव्य निशान होगा और उसे मंदिर में पेश करने का निर्देश दिए । बहुत अनिच्छा के साथ परन्तु देवी की इच्छा के अनुसार, बच्चे को मंदिर में छोड़ दिया गया था।
अगले दिन माता-पिता , जो बच्चे के भोजन के बारे ने सोच रहे थे , मंदिर का दौरा किया । वे बच्चे को दूध पीता देख कर हैरान थे । देवी बच्चे का पूरा ख्याल रखेंगी ऐसा निर्देश मिला।
यह मदुरै में राजा तिरुमाला नायक का समय था। उनके मंत्रियों में से एक मंदिर ने का दौरा किया और देवी का प्रसाद लेने वाले इस बच्चे को देख कर हैरान था । पुजारियों को वह बच्चा देवी के पुत्र के रूप जैसा लगता था । मंत्री ने कहा कि वह वास्तव में देवी के पुत्र थे तो वह पवित्र कुंड के पानी पर चलने में सक्षम होना चाहिए। उस समय बच्चे ने मंदिर पानी पर चलकर दिखा दिया मंत्री राजा तिरुमाला नायक को सूचित कि और आशीष लेने पोहोचे । कुछ साल बाद ,स्वामी के वास्तविक माता-पिता का निधन हो गया । स्वामीजी को दूर काशी ले जाया गया।
स्वामी की मां को त्रिपुरसुंदरी के नाम से जाना जाता था और दोनों माता-पिता श्री विद्या पूजा करते थे। उनकी माँ ने उनपर स्नेह की बौछार की थी। चॉकलिङ्गम् नाम दूसरे परिवार बच्चा था जो स्वामी बढ़ा। माँ की मृत्यु के समय चॉकलिङ्गम् शहर में नहीं थे और अंतिम क्रिया के बाद ही आये। उन्हें बोहोत बुरा लगा तब स्वंय माँ उनके लिए कुछ वस्तुओं को छोड़ दिया था। चॉकलिङ्गम् ने श्मशान भूमि में जब देखा - पोशाक का एक हिस्सा है और कुछ गहने अधजले से थे ; वे उन्हें अपने साथ ले गए।
मां फिर सपने में आए और उन वस्तुओं को रखने और उसे और उसके परिवार के वंशजों द्वारा हर साल पूजा करने को कहा। यह परंपरा अभी भी ३५० से अधिक वर्षों के लिए आगे बढ़ाया जा रहा है। एक बड़ा बॉक्स है जिसमे ये वस्तुए है और यह एक साल में केवल एक बार बाहर ले जाया जाता है। परिवार के वंशज उनकी पूजा करते हैं और इसे वापस रख देते है । इस जगह में स्थित एक छोटा सा मंदिर भी है।
स्वामीजी १६ साल की उम्र में काशी चले गए और त्रिलंग स्वामी के रूप में प्रसिद्द हुए। वे निर्विकल्प समाधी के रूप में बनारस में १५० साल रहे। उन्होंने कैलाश ,बद्रीनाथ, केदारनाथ, नेपाल और विभिन्न अन्य हिमालयी क्षेत्रों की यात्रा की। नेपाल के राजा द्वारा स्वामीजी की पूजा हुई। उन्हें राजा पूजितः कहा जाता है।
वे दक्षिण में सित्तलांगुड़ी (मदुरै) के पास आये। उन्हें यहाँ समाधी प्राप्त कर दूसरा शरीर प्राप्त हुआ। सित्तलांगुड़ी में उनका मंदिर है और पूजा की जाती है।
तेनाक्षी के तिरुनेलवेली जिले कदीर वेलपपर का नाम लिया। कन्नी मरम्मन कोइल मार्ग पर उनकी महासमाधि स्थित है।
काशी जाकर उन्होंने विश्वनाथ और भैरव मंदिर पुनर्स्थापना की। वहा वे श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले। १८८७ में उन्होंने अपने शिष्यों को उन्हें एक लकड़ी के बक्से में बंद कर गंगा में दाल देने के लिए कहा। इसके बाद वे दक्षिण भारत में फिर दिखाई दिए। १९१९ में बतलागुंडु में वे एक घर में रहे जहा आज एक मंदिर है। महा मेरु के साथ यहाँ नित्य पूजा की जाती है।
इस कहानी के अनेको रूप है - कुछ लोग मानते है की स्वंय अपने ही रूप में अवतरित हुए। इसपर बोहोत संशोधन किया जा रहा है। आज स्वामी के ७ या ८ वे वंशज बतलगुंडु में रहते है और त्रिलंग स्वंय और कुलन्दई आनंद को एक ही मानते है।
इस संत के जीवन पर बोहोत रचनाये की गई है। स्वामी परमहंस योगानंद "Autobiography of a Yogi" में उनके बारे में कहते है। सरकारी दस्तावेजों में उनके किये गए जादुई कारनामे लिखे है।
मयम्मा
स्वामीजी के एक भक्त थी मयम्मा जो कन्याकुमारी से थी। उनका नाम मयमयी था। आज भी वृद्ध लोगो को उनके कई चमत्कार याद है। श्री मुमताज़ अली जो "Apprenticed to a Himalayan Master" के लेखक है ; मयम्मा से मिले और आशीर्वाद लिया। वे कन्याकुमारी के किनारे अनेको कुत्तो को चारो और से लेकर बैठ जाती थी। पानी में जाकर वे वापस आती। किसी भी दुकान में अगर वे जाए तो दुकान का व्यवसाय बढ़ जाता था। २०० वर्ष से भी अधिक युग से ये एक महान योगी थी।
उनकी महासमाधि सालेम में सालेम-यरकौड मार्ग पर है।
translated by Ananya
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